पिछले दिनों
मैं जब भी बाज़ार से गुजरता
एक हट्टा-कट्टा नौजवान
मुझे अक्सर मिल जाता था,
मुझे देख-देखकर मुस्कुराता था,
देर तक घूरता रहता था,
ये अलहदा है कि
कुछ नहीं कहता था!
एक दिन मैंने उसे
अपने पास बुलाया
उससे घूरने का राज़ पूछते ही
दिमाग़ चकराया,
उसने बताया-
‘मेरे पास कोठी है, बैंक बैलेन्स है
होण्डासिटी कार है,
माँ, बाप, भाई
यानी घर का हर सदस्य तैयार है !
अगर मान गये
तो अभावों के भव सागर से तरोगे,
बोलो, मुझसे शादी करोगे?’
सुनते ही उसका आॅफर
मन में हुई गिलगिली,
मैंने कहा-‘भाई!
शादी के लिए कोई लड़की नहीं मिली?’
वह उदास होकर बोला-
‘शादी करो या मत करो,
पर ऐसे कहर मत ढाओ!
डियर, भाई कहकर तो मत बुलाओ!
मैं तुम्हारे इनकार का ज़हर
हँसते-हँसते पी लूँगा,
सारी उमर
एक तरफा प्यार करते हुए ही जी लूँगा!’
मैंने कहा- ‘ओए... पहलवान !
मेरा भेजा मत खा,
जा, कहीं और जाके दिल लगा!’
वह चला गया उदास हो के
तब मेरे दिल ने मुझसे कहा रो-रोके-
कि आज हम ये
सभ्यता के किस मोड़ पर आकर खड़े हैं
जहाँ हर तरफ
मखमल में टाट के पैबन्द जड़े हैं,
जहाँ हर तरफ
व्यवस्था का दुःशासन
संस्कृति का चीरहरण कर रहा है,
और नैतिकता का अभिमन्यु
अनैतिकता के चक्रव्यूह में
पल-पल मर रहा है!
युवाओं का ये
कौन सा संस्करण
हमारे सामने आज है
जिसमें न कोई हया है,
न शरम है, न लाज है?
पश्चिमी सभ्यता के चंगुल में फँसकर हम
बिना पानी की मछली की तरह
फड़फड़ा रहे हैं,
कोई मुझे बता दे
कि हम हिन्दोस्तान को आज
ये किस दिशा में ले जा रहे हैं?
ये किस दिशा में ले जा रहे हैं?
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